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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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होटों पे कभी जिनके दुआ तक नहीं आती
जीने की सही उनको अदा तक नहीं आती

घर करते हैं चुपके से मेरे दिल में वो ऐसे
आमद की दबे-पाँव, सदा तक नहीं आती

जिस्मों की नुमाइश ने उसे कर दिया रुसवा
करनी पे मगर उसको हया तक नहीं आती

मुश्किल से महीने में बचाता हूँ मैं जितना
उतने में तो खाँसी की दवा तक नहीं आती

विज्ञान के आलिम हैं मगर हाल है ऐसा
इस दौर में जीने की कला तक नहीं आती

किसको हैं ज़माने की मयस्सर सभी ख़ुशियाँ
तक़दीर में मुफ़लिस के क़बा तक नहीं आती

सय्याद ने प्यासा ही उसे कर दिया ज़िबहा
मासूम परिंदे पे दया तक नहीं आती

पछताएगा, मज़लूम पे ज़ालिम न जफा कर
क़ुदरत की तो लाठी की सदा तक नहीं आती

है नाम 'रक़ीब' अपना तभी तो मेरे नज़दीक
दुनिया की कोई खौफ-ओ-बला तक नहीं आती
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