भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
धोखैं ही धोखै डहकायौ समुझि न परी,
विषय-रस गीध्यौ; हरि-हीरा घर माँझ गँवायौ ।
रे मन मूरख जनम गँवायौ ।
करि अभिमान वुषय-रस गीध्यौ, स्याम-सरन नहिं आयौ ।