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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|अंगारों पर शबनम/वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
फिर ज़माने में कहीं रूसवा मेरी चाहत न हो
करके वादा भूलने की तुझको भी आदत न हो

एक जैसा वक्त हरदम तो रहा करता नहीं
क़ीमती चीज़ों की हो सकता है कल क़ीमत न हो

यूँ लगा करता है जैसे कुछ नहीं संसार में
सामने नज़रों के जिस दम वो हसीं सूरत न हो

सारी दुनिया से मिला सम्मान भी फीका लगे
आदमी की अपने ही घर में अगर इज़्ज़त न हो

हुस्न वालों के तो हैं सौ नाज़ नखरे भी कुबूल
बाद में आ जाऊँ गर तुमको अभी फुरसत न हो

कोशिशों ने आखि़रश मंज़िल तलक पहुँचा दिया
सोचता था मैं कहीं बेकार की मेहनत न हो

ऐ ‘अकेला’ मुझको ईमानो-वफ़ा जाँ से अज़ीज़
तेरी नज़रों में भले इनकी कोई क़ीमत न हो
</poem>
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