भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब' | संग्रह = }} {{KKCatGha...' के साथ नया पन्ना बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
| संग्रह =
}}
{{KKCatGhazal}}
रख के मेज़ों पे जो भारत का अलम बैठे हैं
जाहिरन खा के वो ओहदे की कसम बैठे हैं
बिन बुलाए ही चली आती हैं जो शाम ढले
बस उसी याद में हम दीदा-ए-नम बैठे हैं
खुश्क होटों पे जबां फेर के कब प्यास बुझी
अश्क पीते हैं यहाँ खा के जो ग़म बैठे हैं
सोचकर, राह में ठहरा नहीं इक पल के लिए
मंज़िले लुत्फ़ उठाते हैं जो कम बैठे हैं
चारसू आग है नफरत की न जाने फिर भी
"हाथ पर हाथ धरे अहले कलम बैठे हैं"
आज की रात मेरे दिल पे गिरेगी बिजली
सोलह श्रिंगार किए मेरे सनम बैठे हैं
बुझ रहे हुस्न के हुक्के को तेरे अब भी 'रक़ीब'
गुड़गुड़ाने के लिए भर के चिलम बैठे हैं
<poem>
{{KKRachna
| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
| संग्रह =
}}
{{KKCatGhazal}}
रख के मेज़ों पे जो भारत का अलम बैठे हैं
जाहिरन खा के वो ओहदे की कसम बैठे हैं
बिन बुलाए ही चली आती हैं जो शाम ढले
बस उसी याद में हम दीदा-ए-नम बैठे हैं
खुश्क होटों पे जबां फेर के कब प्यास बुझी
अश्क पीते हैं यहाँ खा के जो ग़म बैठे हैं
सोचकर, राह में ठहरा नहीं इक पल के लिए
मंज़िले लुत्फ़ उठाते हैं जो कम बैठे हैं
चारसू आग है नफरत की न जाने फिर भी
"हाथ पर हाथ धरे अहले कलम बैठे हैं"
आज की रात मेरे दिल पे गिरेगी बिजली
सोलह श्रिंगार किए मेरे सनम बैठे हैं
बुझ रहे हुस्न के हुक्के को तेरे अब भी 'रक़ीब'
गुड़गुड़ाने के लिए भर के चिलम बैठे हैं
<poem>