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जूड़ा के फूल / अनुज लुगुन

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छोड़ दो हमारी ज़मीन परयह मेरी तस्वीर हैअपनी भाषा मैं खुले आसमान को एकटकगंभीरता से निहार रहा हूँसामने उससे मिलता हुआ पहाड़भीत की खेती करनातरह खड़ा हैहमारे जूड़ों मेंनहीं शोभते इसके फूल,यहाँ छत बन रही हैहमारी वहीं साल के घनेकाले जूड़ों में शोभते जंगल हैंजंगल उसके पास से कारो नदीरेत को एक ओर किनारे कर बह रही हैयह मेरा देस हैऔर मैं अपने देस के फूलअंदर हूँजंगली फूलों से हीहमारी जूड़ों का सार मुझे बताया गया हैकिजहाँ तक मेरी नज़रें जाती हैं उसके पारमेरी आँखों को नहीं पहुँचना चाहिएवहाँ एक सरहद ख़त्म होती हैऔर एक शुरू,काले बादलों मेरी चिंता धरती की फ़सलों के बीचलिए हैपूर्णिमा लेकिन मैं आसमान मेंबारिश की चाँद बूँदें नहीं खोज रहाप्रार्थना के शब्द भी नहींमैं पक्षियों को उड़ते हुए देखकर आसमान मेंसरहद की तरहलकीरें खोज रहा हूँये मुस्काराते ताकि उन्हें बता सकूँ किउस ओर कहीं भी बिछी होंगी बारूदी सुरंगेंहोंगे तोपख़ाने, टैंक और सैकड़ों फौजी टुकड़ियाँ लेकिन मेरी बातों से बेख़बरउड़ते हुए पक्षी उस सरहद को मिटा देते हैं जो मेरी आँखों के लिए तय की गई है; औरमैं यह दृश्य क़ैद कर लेता हूँअपनी क़लम से,तस्वीर देखते हुए आश्वस्त होता हूँ किये पक्षीफ़िलीस्तीन हो या इजरायलतुर्की हो या सीरियाकोरिया हो या लद्दाखकहीं भी एक न एक दिनधरती पर जरूर उतरेंगे
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