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{{KKRachna
|रचनाकार=साहिर लुधियानवी
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}}


न तू ज़मीं के लिए है, न आसमाँ के लिए ।

तेरा वुजूद है अब सिर्फ़, दास्ताँ के लिए ॥


पलट के सू-ए-चमन देखने से क्या होगा,

वो शाख ही न रही, जो थी आशियाँ के लिए ।


ग़रज़-परस्त जहाँ में वफ़ा तलाश न कर

यह शैय बनी थी किसी दूसरे जहाँ के लिए ।
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