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Kavita Kosh से
हर सितारे को एक टापू की तरह टापते हुए मै
घूम आई हूँ इस विस्तार में
जहाँ पदार्थ सिर्फ सिर्फ़ ध्वनि मात्र थे
और पकड़ के लटक जाने का कोई साधन नही था
एक चिर -निद्रा में डूबे स्वप्न की तरह स्वीकृत
तर्कहीन, कारणहीन ध्वनि
जो डूबी भी थी तिरती भी थी
इस पूरे
बल्कि देखा जा सकता है
असंख्य-असंख्य आँखों से
और पकड़ में नहीं आती थी
क्या वह ध्वनि मै ही थी ?
और वह शब्द का घोडा घोड़ा तरल हवा -साजो अंधड़ अन्धड़ था या ज्वार
जो बहता भी था उड़ता भी था
चक्र भी था सैलाब भी
था ओजस्वी पावन
तारों का पिता
उड़ते थे तारे आकाश सब मिलजुल मिल-जुल कर
वह दृश्य दृष्टा और दृशेय मै ही थी....!!!
भयानक था...
परीक्षा का समय
क्या वह मै ही थी
इस उजियारे अँधेरे जगत में फैली
एक कविता ...
क्या वह शब्द मै ही थी.?
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