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Kavita Kosh से
जिस पै मक़बूल सज़दा किसी का
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इक फ़रेबे-आर्ज़ू आरज़ू साबित हुआ
जिसको ज़ौके-बन्दगी समझा था मैं
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पहुँचे हैं, उस मक़ाम पै अब उनके हैरती
वह ख़ुद खड़े हैं दीदएदीद-ए-हैराँ लिए हुए
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रहबर तो क्या निशाँ किसी रहज़न का भी नहीं