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<Poem>सूरज उग के ढल गया
अस्त हो गया
जाने कितनी बार
तवे की तरह तपने लगी धरती
जेठ की भरी दुपहरी में
भन्नाए बादलों की तरह
जिस राह रूठ के चली गयी थीं तुम
उसी राह पर
मन की रीती छांगल ले
आज भी खड़ा हूं मैं
तुम्हारी प्रतीक्षा में।</Poem>
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<Poem>सूरज उग के ढल गया
अस्त हो गया
जाने कितनी बार
तवे की तरह तपने लगी धरती
जेठ की भरी दुपहरी में
भन्नाए बादलों की तरह
जिस राह रूठ के चली गयी थीं तुम
उसी राह पर
मन की रीती छांगल ले
आज भी खड़ा हूं मैं
तुम्हारी प्रतीक्षा में।</Poem>