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|रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार
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|संग्रह=पद-रत्नाकर / भाग- 4 / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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<poem>
प्रेम की मूरति नागर नट की।
पुन्य थली बरसानें प्रगटी, माया की छाया सब सटकी॥
राधा-प्रेम-सुधा-रस-सरिता अटकत नायँ काहु की हटकी।
चली अबाध अमी-रस-धारा हरि की ओर, कितहुँ नहिं भटकी॥
रागी हरि-पद, बिषय-बिरागी जन, जे अवगाही रस गटकी।
ते सजि गोप-गोपि का आ‌ए, लै-लै सिर दधि-माखन-मटकी॥
निरखन लगे, करन न्योछावर, रासि-रासि आभूषन-पटकी।
सोहत बंदनवार-पाँति सुभ, कदली खंभ, सुमंगल घटकी॥
‘अचल सुहाग’ असीसत बृद्धा, जुबती हँसत-हँसावत मटकी।
नाचत-गावत सुधि बिसारि सब, सहजहिं लाज-सरम सब झटकी॥
</poem>
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