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<poem>
मम्मी किसको डाले दाने,
चिड़ियों के अब नहीं ठिकाने|

पितृ पक्ष में पापा कहते,
कौये जाने कहां रमाने|

तरस गईं हैं कब से दादी,
नील कंठ के दर्शन पाने|

मुर्गे अब तैयार नहीं हैं,
सुबह सुबह से बांग लगाने|

नहीं दिख रहे अब कठ फोड़े,
कहां चले गये हैं न जाने|

था गरीब का भोजन कोदों,
दुर्लभ हैं अब उसके दाने|

पापा कितने पैदल चलते,
मां से पूछा है दादा ने|

रोटी पर अधिकार जमाया,
चीज़ और वर्गर पिज्जा ने|

सब ओलंपिक जीत लिये हैं,
बेशर्मी और लाज हया ने|
</poem>
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