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Kavita Kosh से
सिमटता धूप का आँगन
अन्धेरा झर रहा छन-छन
अनमने जी को ।
खड़ी हूँ मूर्त्ति-सी प्रियवर
इसी झीने भरोसे पर
मोमबत्ती को ।
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