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Kavita Kosh से
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धोने में बीत गया हर पल-छिन
एक त्रिया-हठ ऐसा बिखरा है
जब कोई दूर का, पड़ोसी का
सम्वेदन छुलता है
आँगन को सागर करने की ज़िद
ऐसा भूचाल उठा है भीतर
रोक नहीं पातीं चन्दन बाहें
अपशकुनी तारे ने फेंक दिए
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