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<poem>
(राग वागेश्री-ताल कहरवा)

बिना प्रीति नहिं मिलते प्रियतम, बिना त्याग मिलती नहिं प्रीति।
सर्वत्याग इसीसे प्रियतम-प्रीति-प्राप्तिकी सुन्दर रीति॥
धन-सम्पत्ति, मान-पद-गौरव, इन्द्रिय-सुखकर भोग अनन्त।
सबको सहज त्याग जो करता मुक्ति-वासनाका भी अन्त॥
स्व-सुख-वासना लेशमात्र भी कभी न रहती किसी प्रकार।
मिलती उज्ज्वल प्रीति परम उस भाग्यवान जनको अविकार॥
लहराता इस दिव्य सुधा-रसका है पारावार अगाध।
सफल करो जीवन, उन राधाका कर आराधन निर्बाध॥
</poem>
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