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बेवकूफ गुडिया / श्रीनाथ सिंह

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<poem>
ऊब गई हूँ गुड़िया से मैं,
कहा नहीं यह करती है।
कितना ही आँखे दिखलाऊँ,
कुछ भी किन्तु न डरती है।
नहीं शहूर जरा भी इसको,
कहने को है पढ़ी लिखी।
कल दुपहर जब खाने बैठी,
कपड़ों पर ली गिरा कढ़ी।
पड़ा मुझी को धोना उनको,
बड़ी दूर से टब लाकर।
पास उसी के लकड़ी पर वह,
गुड़िया भी बैठी आकर।
जब मैं कपड़े लगी सुखाने,
छप छप कुछ बोला जल में।
पीछे फिर कर देखा तो,
पाया उसको गायब पल में।
भीग गई रेशम की साड़ी,
गालों पर काजल फैला।
मैले पानी में डुबकी खा,
सारा बदन हुआ मैला।
मर जाती यदि दौड़ न मुन्नी,
खींच उसे लेती टब से।
देखो इस गुड़िया के पीछे,
परेशान हूँ मैं कब से।
</poem>