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|रचनाकार=राजनारायण चौधरी
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<poem>होते जो बिस्कुट के पेड़!
दौड़-दौड़कर जाते हम सब
तोड़-तोड़कर खाते,
मम्मी-पापा की खातिर
जेबों में भर लाते।

करते नहीं जरा भी देर!
होते जो बिस्कुट के पेड़!

अगर लताओं में टॉफी के
गुच्छे लटके होते,
मम्मी से पैसे न माँगते
और नहीं हम रोते।

लेते तोड़ पाँच-छः सेर!
होते जो बिस्कुट के पेड़।

लड्डू-पेड़े बरफी-चमचम
की जो होती खेती,
दादी माँ चोरी-चोरी नित
झोले में भर देती!

होता घर में इनका ढेर!
होते जो बिस्कुट के पेड़।

-साभार: नंदन, फरवरी, 1993
</poem>
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