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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>सुग्गे की चोंच मढ़ी सोने से
सुग्गा क्या बोले

चाँदी का पिंजरा है
मोती की झालर है
पहरे हैं
पंखों के कटने का डर है

पैरों में हीरे की झाँझर है
सुग्गा क्या डोले

सुग्गे के लाड़ बड़े
दूध-भात खाता है
रानी को
परजा के गीत
वह सुनाता है

अंधे शहजादे हैं - भेद यह
कैसे वह खोले </poem>
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