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Kavita Kosh से
जिस पर हुआ प्रहार नहीं,
रही कुँआरी मुट्ठी वह जो
पकड़ सकी तलवार नहींनहीं।
हुए न शत-शत घाव देह पर
रण का आतप झेला है,
लिये हाथ में शीश, समर में
जो मस्ती से खेला हैहै।
उन के ही आदर्श बचे हैं
कब अवतार उतरते हैं?
नहीं हार कर किन्तु विजय के
बाद अशोक बदलते हैंहैं।
निर्दयता के कड़े ठूँठ से