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खण्ड-1 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

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समझ नहीं पाये हो अब तक क्या वाणी का आशय
लोभ-लाभ के, अहंकार के तुम तो पुतला दिखते
तुमसे कविता क्या संभव है, ऋषि जो हैं, वह लिखते ।लिखते।
कविता तो है कठिन साधना, शब्दों की और रस की
अमरेन्दर यह बात कभी भी नहीं तुम्हारे वश की
कवि का धर्म नहीं कुछ भी है पहले उससे बढ़ कर
इसी यान पर ठीक-ठाक से भाव सुरक्षित चलते
शोक, ओज, उत्साह, जुगुप्सा, रति को देखा मिलते ।मिलते।
</poem>
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