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इज़्ज़तपुरम्-61 / डी. एम. मिश्र

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<poem>
हाथ पर हो रोटी
और रोटी पर
कच्चे-पक्के
आलू के
उबले टुकड़े

फूटे कटोरें में
कभी सूखा भात
भरे आधा पेट
लड़ाई सारी रात की

जिस्मानी काले खेत की
मिट्टी ही दूसरी
घूप-घटा-मौसम
से वो क्या बँधे?


जब चाहे / जो चाहे
जैसे भी चाहे पिल पड़े
बाँह-पे-बाँह
हराई-पे-हराई
हल की नुकीली
नोक के नीचे
परत-दर-परद
उखड़ती रहे
</poem>
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