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|रचनाकार=दीपिका केशरी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
किसी के नजर से उतारे वाला इश्क भी अजब होता है
चौराहे को लांघते हुए
सर तक चढ़ता है
किसी ताबीज के पल्ले नहीं पड़ता
किसी पंडित मुल्ला को समझ नहीं आता
नौ ग्रह रत्न बेकाम हो जाते हैं
दवा लिए हकीम अपना सिर पीट लेता है !
सुनो
उतरा रंग होता तो चढ़ा लेते
नजर का उतारा है
कैसे उतारें.
</poem>
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किसी के नजर से उतारे वाला इश्क भी अजब होता है
चौराहे को लांघते हुए
सर तक चढ़ता है
किसी ताबीज के पल्ले नहीं पड़ता
किसी पंडित मुल्ला को समझ नहीं आता
नौ ग्रह रत्न बेकाम हो जाते हैं
दवा लिए हकीम अपना सिर पीट लेता है !
सुनो
उतरा रंग होता तो चढ़ा लेते
नजर का उतारा है
कैसे उतारें.
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