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आम आदमी / मनोज जैन 'मधुर'

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बैठा तन की जेल में।
जीना दूभर हुआ हमारा
मंहगाई महँगाई के खेल में।चिंता ग्रस्त चिन्ताग्रस्त रसोई
किससे अपना
दर्द कहे।
चूल्हा बेबश बेबस
चक्की गुमसुम
बेलन रोज रोज़ दहे ।
डूब रही है रोज दिहाड़ी
एक पतीली तेल में।
 
अकुलाता है प्राण पखेरू
बैठा तन की जेल में।
जीना दूभर हुआ हमारा
मंहगाई महँगाई के खेल में। 
मन झरिया का
हुआ कड़ाही से
चढ़ते भावों
ने बदला है
स्वाद जमाने ज़माने का।
छोंक लगाना मजबूरी है
अब तो रोज रोज़ डढेल में। 
अकुलाता है प्राण पखेरू
बैठा तन की जेल में।
जीना दूभर हुआ हमारा
मंहगाई महँगाई के खेल में।
मिलना जुलना
नाता रिश्ता
कितना टूट गया।
सात जनम भी कम लगते हैं
अपने पन अपनेपन के मेल में। 
अकुलाता है प्राण पखेरू
बैठा तन की जेल में।
जीना दूभर हुआ हमारा
मंहगाई महँगाई के खेल में।
</poem>
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