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अये मेरे प्रिये / कैलाश पण्डा

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|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
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<poem>
अये मेरे प्रिये
तुम्हारे प्रति जब
मेरा प्रेम उमड़ता है
तो मेरे शरीर की
समस्त ऊर्जा
ह्रदय तल में
समाहित हो जाती है
तुम मेरे समक्ष होती हो तो
मस्तिष्क शून्यवत/दीन- हीन सा याचक
मानो पा लेना चाहता हो थाह !
उद्वेग रहित/कल्पना विहीन
आंखे चुधियाई सी
मानो तुम में ही
सारा संसार बसा है
मेरे मुख से निःशब्द
कर्ण बिम्ब स्तब्ध/मेरा उपस्थ जड़वत
मेरी आंखों में बसी आत्मा
तुम्हारी आंखों में /परमात्मा को खोजती
शायद मिल जाना चाहती नदी
समुद्र के अथाह जल में
और मुक्त हो जाना चाहती
सूक्ष्म सत्ता से।

</poem>
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