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{{KKRachna
|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
जहाँ जीने की आस रहती है।
ज़िंदगी आस-पास रहती है।
घास को काट कर बने बँगले,
फिर भी ख़िद्मत में घास रहती है।
जिन का सच हो बहुत-बहुत कड़वा,
लब पे हरदम मिठास रहती है।
जाने क्या हो गया सियासत को,
ये सदा बेलिबास रहती है।
स्वर्ण पिंजरा चमक-चमक उठता,
सोन चिड़िया उदास रहती है।
</poem>
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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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जहाँ जीने की आस रहती है।
ज़िंदगी आस-पास रहती है।
घास को काट कर बने बँगले,
फिर भी ख़िद्मत में घास रहती है।
जिन का सच हो बहुत-बहुत कड़वा,
लब पे हरदम मिठास रहती है।
जाने क्या हो गया सियासत को,
ये सदा बेलिबास रहती है।
स्वर्ण पिंजरा चमक-चमक उठता,
सोन चिड़िया उदास रहती है।
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