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{{KKRachna
|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
गगन का स्नेह पाते हैं, हवा का प्यार पाते हैंहैं।परों को खोलकर अपने, जो किस्मत आजमाते हैंहैं।
फ़लक पर झूमते हैं, नाचते हैं, गीत गाते हैं,जो उड़ते हैं उन्हें उड़ने के ख़तरे कब डराते हैंहैं।
परिंदों की नज़र से एक पल गर बस देख लो दुनिया,न पूछोगे कभी, उड़कर परिंदे क्या कमाते हैहै।
बराबर हैं फ़लक पर सब बराबर हैं यहाँ वहाँ नाज़ुक परिंदे भी,लड़ें गर सामने से तो अगर हो सामना अक्सर विमानों को गिराते हैंहैं।
जमीं ज़मीं कहती, नई पीढ़ी के पंक्षी पंछी भूल मत जाना,परिंदे शाम ढलते घोसलों में लौट आते हैंहैं।
</poem>
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