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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
जीवन भर ख़ुद को दुहराना।
इससे अच्छा है चुक जाना।

मैं मदिरा में खेल रहा हूँ,
टूट गया जब से पैमाना।

भीड़ उसे नायक समझेगी,
जिसको आता हो चिल्लाना।

यादों के विषधर डस लेंगे,
मत खोलो दिल का तहख़ाना।

सीने में दिल रखना ‘सज्जन’,
अपना हो या हो बेगाना।
</poem>
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