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{{KKRachna
|रचनाकार=सुरेश चन्द्र शौक़
}}
[[Category:ग़ज़ल]]

हमें कब तक यूँ ही तपती फ़ज़ायें दीजियेगा

जो गरजें और बरसें वो घटायें दीजियेगा


तमाज़त माल—ओ—ज़र की बख़्शिये औरों को साहिब

हमें तो प्यार की ठंडी हवायें दीजियेगा


हमारी हक़बयानी जुर्म है तो हम हैं मुजरिम

हमें मंज़ूर हैं जो भी सज़ायें दीजियेगा


इज़ारादार सूरज के नहीं हैं आप तन्हा

सभी को सब के हिस्से की ज़ियायें दीजियेगा


मुक़द्दर ने जिन्हें काँटे ही पहनाये हमेशा

कभी उनको भी फूलों की क़बायें दीजियेगा


सभी उलझे हुए हैं अपनी—अपनी उलझनों में

किसे फ़ुर्सत यहाँ किसको सदायें दीजियेगा


बड़ी बेरंग—ओ—रौनक़ है फ़ज़ा इस अंजुमन की

इसे थोड़ी —सी अपनी शोख़ अदायें दीजियेगा


अँधेरों को मुक़द्दर जान कर जो मुतमुइन हैं

ज़रा उन तीरा—ज़िह्नों को ज़ियायें दीजियेगा


शिफ़ायाब अब तो होने के नहीं हम ‘शौक़’ हर्गिज़

दवायें दीजिये चाहे दुआयें दीजिएगा



तमाज़त=गर्मी;इज़ारादार=ठेकेदार;क़्बायें=पोशाकें;मुतमुइन-=संतुष्ट; तीरा ज़िह्न =अंधकारमय बुद्ध वाले; शिफ़ायाब=स्वस्थ