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{{KKRachna
|रचनाकार=सुरेश चन्द्र शौक़
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
हमारी बेख़ुदी अब उस मक़ाम पर है मियाँ
जहाँ किसी को न अपनी ख़बर है मियाँ
सफ़र है कितना कड़ा फिर भी राह—रौ लाखों
बड़ी अजीब महब्बत की रहगुज़र है मियाँ
कोई रफ़ीक़ न हमराज़—ओ—हमसफ़र कोई
बड़ा ही तन्हा ग़म—ए—ज़ात का सफ़र है मियाँ
भटकते फिरते हो अपनी तलाश में नाहक़
कभी जो ख़त्म न होगा ये वो सफ़र है मियाँ
ये और बात है हम मुँह से कुछ नहीं कहते
हर एक बात की लेकिन हमें ख़बर है मियाँ
मुखौटे लोग न बदलें तो काम कैसे चले
जिसे तू ऐब समझता है वो हुनर है मियाँ
हर एक सम्त वही रात की सियाही है
यही सहर है हमारी तो क्या सहर है मियाँ
अज़ीज़ क्यों है तुझे पत्थरों का खेल ऐ ‘शौक़’!
तू यह तो सोच कि शीशे का तेरा घर है मियाँ
राह—रौ; राही;रफ़ीक़=मित्र;ग़म—ए—ज़ात=निजी दुख;सहर=सुब्ह;अज़ीज़=प्रिय
{{KKRachna
|रचनाकार=सुरेश चन्द्र शौक़
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
हमारी बेख़ुदी अब उस मक़ाम पर है मियाँ
जहाँ किसी को न अपनी ख़बर है मियाँ
सफ़र है कितना कड़ा फिर भी राह—रौ लाखों
बड़ी अजीब महब्बत की रहगुज़र है मियाँ
कोई रफ़ीक़ न हमराज़—ओ—हमसफ़र कोई
बड़ा ही तन्हा ग़म—ए—ज़ात का सफ़र है मियाँ
भटकते फिरते हो अपनी तलाश में नाहक़
कभी जो ख़त्म न होगा ये वो सफ़र है मियाँ
ये और बात है हम मुँह से कुछ नहीं कहते
हर एक बात की लेकिन हमें ख़बर है मियाँ
मुखौटे लोग न बदलें तो काम कैसे चले
जिसे तू ऐब समझता है वो हुनर है मियाँ
हर एक सम्त वही रात की सियाही है
यही सहर है हमारी तो क्या सहर है मियाँ
अज़ीज़ क्यों है तुझे पत्थरों का खेल ऐ ‘शौक़’!
तू यह तो सोच कि शीशे का तेरा घर है मियाँ
राह—रौ; राही;रफ़ीक़=मित्र;ग़म—ए—ज़ात=निजी दुख;सहर=सुब्ह;अज़ीज़=प्रिय