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Kavita Kosh से
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रात कोरी कल्पना में
दिन कटे हैं धूप चुनते।चुनते
प्यास लेकर
भक्ति बैठी रो रही अब
तक धुंए का मन्त्र सुनते ।
छाँव के भी
देह की निष्ठा अभागिन
जल उठी संकोच बुनते ।
सौंपकर
दुःख हुए संतृप्त लेकिन
सुख रहे हर रोज घुनते ।
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