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Kavita Kosh से
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मैं आम आदमी हूँ,
मैं आम आदमी हूँ।
मैं उपवन में अपतृण -सा उग आया हूँ,
मैं जनपथ पर कुहरा सा घिर आया हूँ,
मैं पावस ऋतु में छाई नमी हूँ;
मैं आम आदमी हूँ,
मैं आम आदमी हूँ।
मैं सरकार के सिर पर राहु सा छाया हूँ,
मैं विभ्रान्त आत्मा की अवाञ्छित काया हूँ,
स्पर्शातीत हूँ, किन्तु लाज़मी हूँ;
मैं आम आदमी हूँ,
मैं आम आदमी हूँ।
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