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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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इधर उधर जो चराग़ टूटे पड़े हुए हैं
सलाम इनको, ये आंधियों से लड़े हुए है
दिखा रहे है हमें जो, अपना फुला के सीना
हमें पता है ये किस के बल पर खड़े हुए हैं
गले मिलने की सुलह की हो पहल किधर से
अभी तो दोनों ही अपनी ज़िद पर अड़े हुए हैं
हक़ीक़तें सब दबी हुई हैं इन्हीं के नीचे
सियासी लोगों ने ऐसे किस्से घड़े हुए हैं
दिखाई देने लगे हैं रिश्ते तमाम बोने
अभी तो साहब कमा के दौलत बड़े हुए हैं
</poem>
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इधर उधर जो चराग़ टूटे पड़े हुए हैं
सलाम इनको, ये आंधियों से लड़े हुए है
दिखा रहे है हमें जो, अपना फुला के सीना
हमें पता है ये किस के बल पर खड़े हुए हैं
गले मिलने की सुलह की हो पहल किधर से
अभी तो दोनों ही अपनी ज़िद पर अड़े हुए हैं
हक़ीक़तें सब दबी हुई हैं इन्हीं के नीचे
सियासी लोगों ने ऐसे किस्से घड़े हुए हैं
दिखाई देने लगे हैं रिश्ते तमाम बोने
अभी तो साहब कमा के दौलत बड़े हुए हैं
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