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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
कई बरस से यहां अजनबी रहा हूँ मैं
तमाम शहर में इक तुझको जानता हूँ मैं

ठहर गई है उसी वक़्त गर्दिशे-दौरां
कभी जो तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं

तुम्हारे साथ बिताये थे मैंने जो लम्हें
उन्हीं की क़ैद में क्यों आज तक पड़ा हूँ मैं

किसी के आने की उम्मीद तो नहीं लेकिन
कभी कभी युंही दरवाज़ा खोलता हूँ मैं

मैं दिल की बात कहूँ उससे तो कहूँ क्योंकर
वो एक शख्स जिसे मोतबर लगा हूँ मैं।

कभी जो वक़्त की लू जिस्म को जलाती है
तिरे ख़याल की बारिश में भीगता हूँ मैं।
</poem>
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