भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
1,178 bytes removed,
07:15, 3 मार्च 2019
सीत में, घाम में, भोर में, साँझ में
मन उपासल रहल आझ तक अनसहल॥
सब कहलको हे
कुछ न कहके उ सब कहलको हे,
लोर में भींज सब सहलको हे॥
आँख तऽ, गोर मन के दरपन हौ,
साँस बन नेह के समरपन हौ।
तोर किरिआ लहस के सपना के,
सब दिरिस आस में सँवारलो हे॥
साँझ से भोर तक उदास निअन
अनमिझाएल एगो पिआस निअन
सोझ मन के इ बात हिरनी के
मेह के छाँह बन उतरलो हे॥
झाँझ-गोड़ाँव के दरद, हमरा
सब कहलको हे इ सरद हमरा।
गन्ह सन् पाँव पर कि पिपनी पर
अंगे-अँगे खिलखिला पसरलो हे॥
ई अँधरिया के पार जाएला
सात सुर फिन उतार लावेला
एगो असरे हमर सभे जिनगी
आप सूखे एने सरसलो हे॥
</poem>