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Kavita Kosh से
जिसमें समुद्र–उबड़ खाबड़ सतहों पर
मीलों से दौड़ता हुआ, ला पटकता है किनारे,
समेटी हुयी लहरों की उद्श्रृंखलता उच्श्रृंखलता और उनका मनमानापन
जिसे तुम ज्वार कहते हो।
लौटता हुआ खारा पानी, फिर भी रोता जाता है
हिलता डुलता, डगमगाता हुआ,
अपना बनता बिगड़ता चेहरा, अपनी पहचान को॥
छीटें मारती हवा, थपेड़ों में लिपत लिपट कर उसे कोंचती है,
बाबा भीगे किनारों के रेत पर बने,
पावों के सफर में कुचली,
तुम्हारी पहचान॥
फिर तुम कहते हो–धरती ने अंगड़ाई ली,
पुनर्जीवन या पुनरूत्थान पुनरुत्थान की राह पर जैसे सुलगती राख से उठ कर एक चिनगारी चिंगारी
बन जाय ज्वालामुखी का दहकता लावा॥
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