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|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
}}
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<poem>
बाहर भीतर कोलाहल है
ढेर गरल, कुछ गंगाजल है।
सबको में पहचानूँ कैसे
सबके द्वार मची हलचल है।
दर्पण-सा मन बना ठीकरा
जग में माटी के चोले का ।
दो कौड़ी भी दाम मिला ना
अरमानों के इस झोले का।
बरसों बीते पत्र पुराने
झोले में थे खूब सँभाले।
जिनका अता-पता ना जाने
उनको कैसे करें हवाले।
कोई तो बस दो पल दे दे
खुद से ही कुछ कर लें बातें
अब उनसे क्या कहना हमको
दी जिस-जिसने काली रातें।
मेपल से भी कभी पूछना
निर्जन वन है कैसे भाया
पतझर जब आ बैठा द्वारे
कैसे उसने पर्व मनाया!
-0-
</poem>
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बाहर भीतर कोलाहल है
ढेर गरल, कुछ गंगाजल है।
सबको में पहचानूँ कैसे
सबके द्वार मची हलचल है।
दर्पण-सा मन बना ठीकरा
जग में माटी के चोले का ।
दो कौड़ी भी दाम मिला ना
अरमानों के इस झोले का।
बरसों बीते पत्र पुराने
झोले में थे खूब सँभाले।
जिनका अता-पता ना जाने
उनको कैसे करें हवाले।
कोई तो बस दो पल दे दे
खुद से ही कुछ कर लें बातें
अब उनसे क्या कहना हमको
दी जिस-जिसने काली रातें।
मेपल से भी कभी पूछना
निर्जन वन है कैसे भाया
पतझर जब आ बैठा द्वारे
कैसे उसने पर्व मनाया!
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