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Kavita Kosh से
मगर जिनमें दबे हैं कहीं
उस कौवे के
ताज़े-हरे ज़ख्मज़ख़्म
अगर कोई पूछे तुमसे
जिन्हें अपने हालातों पर
अपनी बेबसी पर
अपनी गरीबीग़रीबी
और लाचारी पर
हँसना और रोना एक सा लगता है,