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<poem>
ये कैसे सानिहे अब पेश आने लग गए हैं
तेरे आगोश में हम छटपटाने लग गए हैं

बहुत मुमकिन है कोई तीर हमको आ लगेगा
हम ऐसे लोग जो पँछी उड़ाने लग गए हैं

हमारे बिन भला तन्हाई घर में क्या ही करती
उसे भी साथ ही ऑफिस में लाने लग गए हैं

बदन पर याद की बारिश के छींटे पड़ गये थे
पराई धूप में उनको सुखाने लग गए हैं

हवा के एक ही झोंके में ये फल गिर पड़ेंगे
ये बूढ़े पेड़ के कँधे झुकाने लग गए हैं

नज़र के चौक पे बारिश झमाझम गिर रही है
तो दिल के रूम में गाने पुराने लग गए हैं
</poem>
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