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<poem>
लानत रख लो जन गण मन की
राजा निकले पाथर तुम ।

साँसें पड़ीं शान्त जितनी भी
उन सबके हो हत्यारे,
दृष्य भयावह टर सकते थे
लेकिन तुमने कब टारे ।

संसाधन की डोर डाढ़ में
बैठे रहे दबाकर तुम ।

बेशर्मी भी शर्मसार है
इतने हुए अमानव हो,
चोला ओढ़े हो मानुष का
लेकिन घातक दानव हो ।

अफ़रोगे कब बोलो आख़िर
कितने मुण्ड चबाकर तुम ।

हाहाकार मचा हर घर में
कब रेंगी जूँ कानों पर,
मला अन्धेरा तुमने सबकी
सांसों संग विहानों पर ।

आत्ममुग्धता की मूरत हो
बैठै साँस ठगाकर तुम ।
</poem>
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