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संदूक / रेखा राजवंशी

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<poem>
मैंने फिर आज
पुरानी यादों का
संदूक खोला
गुज़रे लम्हों को तोला ।

कुछ ढलके आंसू
जो अब भी नर्म थे
भूले बिसरे अफ़साने
जो अब तक गर्म थे ।

कुछ पत्थर, कुछ मोती
जो मैंने बटोरे थे
बचपन की यादों के
रेशमी डोरे थे ।

कागज़ के टुकड़े थे
अनलिखी कहानी थी
हो गई फिर ताजी
पीर जो पुरानी थी ।

बंद संदूक में
ख्वाहिश की कतरन थी
तबले की थापें थीं
टुकड़े थे, परन थी ।

देखा, सराहा
कुछ आंसू बहाए
बंद संदूक में
फिर सब छिपाए ।
</poem>