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<poem>
फैलती हुई रोशनी के बीच हूँ मैं
हाथ मेरे हौंसले से भरे हुए,
ख़ूबसूरत कायनात ।
रुक नहीं सकता मेरा दरख़्तों का निहारना :
इतने उम्मीद भरे वे हैं
इतने हरे ।
धूपीली पगडण्डी एक
शहतूतों के उस पार तक पसरी हुई
जेल-अस्पताल के रौशनदान पर खड़ा हूँ मैं
फटक नहीं सकती अब
दवाओं की गन्ध नथुनों तक मेरे :
कहीं खिले होंगे फूल कार्नेशन के ।

इसी तरह चलता है यहाँ सब कुछ, दोस्त !
गिरफ़्तार हो जाना समस्या नहीं है
समस्या है ; बचें कैसे
हथियार डाल देने से ।

१९४८

''' अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल'''
</poem>
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