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<poem>
अपनी ढपली, अपने गीत
न कोई साथी ,न कोई मीत
किससे कोई बात करे ?

अधिकारों की हुई नीलामी
छीना झपटी खेल रचा
झाँसे में आ गई ग़रीबी
न छप्पर न खेत बचा

भक्षण–भाषण खूब हुआ
टूटी न शोषण की रीत
किससे कोई बात करे ?

जात धर्म की लेकर आढ़
हिंसा तांडव करती देखी
गूँगी-बहरी खड़ी सियासत
वादों का दम भरती देखी |

आहत-खंडित हुई लेखनी
कोई लिखे न मरहम गीत
किसकी कोई बात करे |

अखबारों में भरी सुर्खियाँ
दुष्कर्मों का ज़ोर हुआ
खबर नवीसी भागे फिरते
जनता में कुछ शोर हुआ

बहस तर्क की लम्बी दौड़ें
अपराधों में उत्सव–जीत
छोड़ो, किसकी बात करें |

</poem>