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Kavita Kosh से
गुंजित हो धरा - गगन ये
मन -प्राण सुरभित हो खिलें।
कण्ठ लग जाओ कभी जो
यह शीत मन का दूर हो।
जब सफ़र हो आखिरी तो
कह सके ना जो उम्रभर
सब वह तुमसे है कहना।
मुझे वह हाला पिलादो
ये मन मगन, तन चूर हो।
मरुभूमि की प्यास मेरी
अँजुरी भर न पी सके हम
कितनी बड़ी यह त्रासदी!
है बस इतना ही कहनाकण्ठ लग जाओ कभी जोयह शीत मन 'नयनों का दूर हो।मुझे वह हाला पिलादोये मन मगन, तन चूर तुम्हीं नूर हो।'
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