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{{KKRachna
|रचनाकार=वृंदा जोगदंड देसाई
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
मिलेगा ताल से हमारा भी ताल, बस थोड़ा-सा सब्र कर।
बिछाएंगे पुष्प हम भी पथ पर, कांटों को बस अनदेखा कर।
गूंजेगा इक दिन हमारा भी स्वर, साज थोड़े बस जाएं संवर।
थिरकेंगे लय में हम भी मंच पर, थोड़ा सा बस जाएं निखर।
हैं हम भी कठपुतली उन्हीं हाथों की, डोरियां है कुछ इधर उधर।
आता है हमें भी रंगों को बिखेरना, रेखाएं थोड़ी बस हो जाएं सरल।
भव्य हैं , दिव्य हैं, उसी प्रकाशपुंज की हम ज्योति,
थोड़ा ठहर, थोड़ा सम्हल, अभी ये लौ है टिमटिमाती।
आए जग में हम भी वैसे, आता है हर जीवन जैसे।
गढ़ा है उसी कुम्हार ने हमें, शायद हाथ कांपे थे थर थर।
ना भाग सकें तो क्या, साथ चलेंगे हाथ पकड़कर।
उठाएगी शीश ये भी बाती, बनेगी ज्वाला प्रखर,
हाथों को मेरे थोड़ा सा थामे, धीरज से यूं ही चला चल।
</poem>
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|रचनाकार=वृंदा जोगदंड देसाई
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|संग्रह=
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मिलेगा ताल से हमारा भी ताल, बस थोड़ा-सा सब्र कर।
बिछाएंगे पुष्प हम भी पथ पर, कांटों को बस अनदेखा कर।
गूंजेगा इक दिन हमारा भी स्वर, साज थोड़े बस जाएं संवर।
थिरकेंगे लय में हम भी मंच पर, थोड़ा सा बस जाएं निखर।
हैं हम भी कठपुतली उन्हीं हाथों की, डोरियां है कुछ इधर उधर।
आता है हमें भी रंगों को बिखेरना, रेखाएं थोड़ी बस हो जाएं सरल।
भव्य हैं , दिव्य हैं, उसी प्रकाशपुंज की हम ज्योति,
थोड़ा ठहर, थोड़ा सम्हल, अभी ये लौ है टिमटिमाती।
आए जग में हम भी वैसे, आता है हर जीवन जैसे।
गढ़ा है उसी कुम्हार ने हमें, शायद हाथ कांपे थे थर थर।
ना भाग सकें तो क्या, साथ चलेंगे हाथ पकड़कर।
उठाएगी शीश ये भी बाती, बनेगी ज्वाला प्रखर,
हाथों को मेरे थोड़ा सा थामे, धीरज से यूं ही चला चल।
</poem>