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|संग्रह=एकजुट हैं सब अन्धेरे / रामकुमार कृषक
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<poem>
जैसी हुई लो आज फिर औचक हमारी,
अदीबों ने उसे समझा मगर बकबक हमारी ।

न तो शायर बड़े हम हैं नहीं नक़्क़ाद ही कोई,
मगर उनको सुना तो अक़्ल थी भौचक हमारी ।

ज़माने - भर की खाईं गालियाँ क्या कुछ नहीं झेला,
ख़ुदा की क़सम ख़ुद से भी रही नकचक हमारी ।

उछलते राह पर चलना नहीं सीखा कभी हमने,
शुरू से ही रही है चाल कुछ उजबक हमारी ।

हमें शब्दों को घिसना - माँजना कुछ भी नहीं आया,
रही है बेसलीक़ा शायरी बेशक हमारी ।
</poem>
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