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Kavita Kosh से
<poem>
बारिश होती रही सारी रात, पानी बिना रुके बहता रहा
अलसी के तेल का दिया कमरे में सारी रात जलता रहादहता रहा
अपने कासनी घूँघट में से धरती धीरे-र्धीरे साँसें लेती रही
गर्म प्याले से उठे उठती है भाप जैसे, धरा से वैसे धुआँ उठता से धुआँ लहता रहा
कब अपना सिर उठाएगी घास, धरती से बाहर आएगी
कौन मेरी यह आशंका औ’ डर, गिरती ओस को बताएगा
पहले बोलेगा मुर्गा एक , ज़ोर से कुकड़ूँ-कू करके गुर्राएगाफिर सारे मुर्गे बोल उठेंगे और औ’ क्या सब-कुछ ख़त्म हो जाएगा ?
एक-एक कर गुज़रे वर्षों को, एक-एक कर चुनता हूँ
बारी-बारी से इन सालों में बीते अन्धेरे को धुनता हूँ
ये गुज़रे साल कुछ तो कहेंगे, बतलाएँगे बदलाव की बात
वर्षा, धरती औ’ प्रेम सहित सबका — बदल जाएगा रे ये गात !
1923