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Kavita Kosh से
जगा सूर्य जब भी सहर हो गई।
लगा वक्त वक़्त इतना उन्हें राह में, दवा आते -आते ज़हर हो गई।
बँधी एक चंचल नदी प्यार में,
तो वो सीधी -सादी नहर हो गई।
समंदर के दिल ने सहा ज़लज़ला,
तटों पर सुनामी कहर क़हर हो गई।
सियासत कबूली जो मज़लूम ने,
तो रोटी -लँगोटी महर हो गई।
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