भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राहुल शिवाय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=राहुल शिवाय
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGeet}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
पता चला
दिल्ली में रहकर
दिल्ली कितनी दूर

बस, मेट्रो
पैदल, ऑटो से
दिन-दिन भर का चक्कर
सिर्फ़ डिग्रियाँ
काम न आतीं
बोल रहे हैं दफ़्तर

कोर्स सभी
ठिगने लगते हैं
मन लगता मजबूर

चमगादड़
बनकर महँगाई
मँडराती है सिर पर
और हाँफती
साँसें जीतीं
लम्हा-लम्हा डरकर

सपनों को
आधा कर देना
दिल्ली का दस्तूर

रात-रात भर
जगती रातें
रेस ख़त्म कब होती
दिल्ली मुश्किल
से ही दो पल
कभी चैन से सोती

लेकिन दिल्ली
में रहना भी
देता एक गुरूर।
</poem>
Mover, Protect, Reupload, Uploader
6,574
edits