लबों पे जारी है उसके अगर मगर फिर भी
फ़रेब खा के भी बदज़न नहीं हुआ क्योंकरलेकिन
समझता आया है दिल उसको मोतबर फिर भी
तलाशे-यार है जारी इधर-उधर फिर भी
पता है उसको के इन्सानियत का खूँ होगा
लगाता आग है ज़ालिम नगर-नगर फिर भी
'रक़ीब' इल्म की दौलत से मालामाल मालदार तो है
बराए-रिज़्क भटकता है दर-बदर फिर भी
</poem>