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मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग
रोज़ मैं चाँद चांद बन के आता हूँ<br>
दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ
खनखनाता हूँ माँ के गहनों में<br>
हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में
मैं ही मज़दूर के पसीने में<br>
मैं ही बरसात के महीने में
मेरी तस्वीर आँख का आँसू<br>
मेरी तहरीर जिस्म का जादू
मुझको पहचानते नहीं जब लोग
मैं ज़मीनों को बे-ज़िया करके <br>
आसमानों में लौट जाता हूँ