भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
<poem>
कस्बे के एक कमरे में
सुन रहा हूं हूँ मैं
दम तोड़ती बूढ़ी सर्दी की कराह
जबकि लोग बाहर
काली सड़कों पर गुजर गुज़र रहे हैं
‘दिल तो पागल है’ गाते हुए
कैसे करूँ इस बुढ़ापे का वर्णन
कोई नहीं सुनता माँ की बात
सारा परिवार
टीवी टी०वी० पर देख रहा है
नई सदी का आगमन
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,594
edits